Skip to main content

Posts

Featured

P02 शिक्षा / अज्ञेय

गुरु थोड़ी देर चुपचाप वत्सल दृष्टि में नवागन्तुक की ओर देखते रहे। फिर उन्होंने मृदु स्वर में कहा, “वत्स, तुम मेरे पास आये हो, इसे मैं तुम्हारी कृपा ही मानता हूँ। जिनके द्वारा तुम भेजे गये हो उनका तो मुझ पर अनुग्रह है ही कि उन्होंने मुझे इस योग्य समझा कि मैं तुम्हें कुछ सिखा सकूँगा। किन्तु मैं जानता हूँ कि मैं इसका पात्र नहीं हूँ। मेरे पास सिखाने को है ही क्या? मैं तो किसी को भी कुछ नहीं सिखा सकता, क्योंकि स्वयं निरन्तर सीखता ही रहता हूँ। वास्तव में कोई भी किसी को कुछ सिखाता नहीं है; जो सीखता है, अपने ही भीतर के किसी उन्मेष से सीख जाता है। जिन्हें गुरुत्व का श्रेय मिलता है वे वास्तव में केवल इस उन्मेष के निमित्त होते हैं। और निमित्त होने के लिए गुरु की क्या आवश्यकता है? सृष्टि में कोई भी वस्तु उन्मेष का निमित्त बन सकती है?” नवागन्तुक ने सिर झुकाकर कहा, “मैंने तो यहाँ आने से पहले ही मन-ही-मन आपको अपना गुरु धार लिया है। आगे आपका जैसा आदेश हो।” गुरु फिर बोले, “जैसी तुम्हारी इच्छा, वत्स। यहीं रहो। स्थान की यहाँ कमी नहीं है। अध्ययन और चिन्तन के लिए जैसी भी सुविधा की तुम्हें आवश्यकता हो

Latest Posts

P01 : Observation